शिक्षा सभ्यता और संस्कार में मेरे जमाने का सफर बेहतर था -डॉ एमपी सिंह

देश के सुप्रसिद्ध शिक्षाविद समाजशास्त्री दार्शनिक प्रोफ़ेसर एमपी सिंह ने अपना उदाहरण देते हुए अपने जीवन का सफरनामा इस आर्टिकल में प्रकाशित किया है मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के जिला अलीगढ़ में श्यारोल गांव में निर्धन परिवार में हुआ था
 जब मैं 2 वर्ष का था तभी पिता का देहांत हो गया था हम चार भाई और दो बहन थे माता जी के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी खेती क्यारी नहीं थी पक्का मकान दुकान भी नहीं था
 लेकिन फिर भी माताजी ने हमको पढ़ाने की हिम्मत की जब हम प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाया करते थे तो फटे पुराने कपड़े का थैला उसमें एक कायदा, कलम, बुद्धका, पट्टी ,गोटा ,लाइन खींचने के लिए धागा, बैठने के लिए बोरी, साथ लेकर जाया करते थे और नीचे बैठने में आनंद आया करता था 
स्कूल की छुट्टी से पहले गिनती पहाड़े बोले जाते थे उसमें सबसे पहला नाम मेरा होता था उस समय 40 तक पहाड़े याद थे ढांचा, पहुंचा ,सवैया ,देवड़ा,  तोला, रत्ती मासा आदि का विशेष ज्ञान था 
उस समय जो बाल  सभाएं  हुआ करती थी उनमें भी प्रमुखता से मेरा नाम शामिल होता था उन बाल सभाओं में नैतिक व व्यावहारिक तथा सामाजिक शिक्षाएं दी जाती थी 
घर आने के बाद घर के सभी कार्य करने पड़ते थे जैसे कुए से पानी लाना, गाय भैंस को नहलाना, उनकी भोजन व्यवस्था करना, चारा काटना ,जंगल जाना, जंगल से लकड़ी लाना ,बन बीनना ,सिल बीनना ,फसलों की निराई गुड़ाई करना, पकी फसलों को रखाना, फसलों की कटाई करना, शाम को बड़ों का बिस्तर लगाना, बड़ों के पैर दबाना, घर के सामने के डगरे को साफ करना, अपने कपड़े स्वयं धोना आदि 
उस समय पर पुरानी किताबों को खरीद कर उन पर जिल्द चढ़ा लेते थे और नई किताब की तरह बना लेते थे और पूरी साल उसी से पढ़ाई करते थे या एक दूसरे मित्र से किताब मांग कर भी गुजारा कर लेते थे चिपकाने के लिए लेही  या रेटा का प्रयोग करते थे
 नंगे पैर स्कूल चले जाते थे खाने की भी चिंता नहीं होती थी सुबह दूध या छाछ पीकर स्कूल चले जाते थे और 3-4 बजे जब स्कूल से घर वापस लौटते थे तो जो भी रोटी रखी होती थी उसी को प्याज या चटनी से खा लेते थे क्योंकि उस समय गेहूं की रोटी तो अमावस्या या पूर्णमासी को ही मिलती थी उस समय पर बाजरा मक्का  की रोटी ही मिलती थी तो कई बार गुड़ मिलाकर मलीदा बनाकर खा लिया करते थे और पेट भर लिया करते थे
 कई बार भूखा भी रहना पड़ता था और जंगल में जाकर गन्ना चूस लिया करते थे या मटर और चना के होरे बना कर खा लिया करते थे या चना पालक मेथी खेत में से उखाड़ कर नमक के साथ खा लिया करते थे 
जब कोल्हू  चल रहे होते थे तो बैलों को हांककर गुड प्राप्त कर लेते थे और कुछ गरम गुड घर भी ले आते थे जिसको सभी परिवार के सदस्य बड़े ही आनंद के साथ खाते थे 
उस समय जेब खर्ची का तो कोई मतलब ही नहीं था लेकिन फिर भी कॉपी पेंसिल रबड़ इत्यादि खरीदने के लिए कुछ चंद पैसों का इंतजाम करना होता था जोकि मेहनत मजदूरी करके कर लेते थे
 पांचवी कक्षा में बोर्ड परीक्षा दी थी जिसका सेंटर बुढाका में पढ़ा था जिसमें खंड स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त किया था जिसके लिए पहली बार वजीफा मिला था और उस वजीफा से घर की काफी समस्याओं का समाधान हो गया था 
उस समय दशहरे पर घर पर ही जलेबी बनाते थे क्योंकि बाजार से खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे होली वाले दिन ही कचोरी और पकोड़े बनते थे लेकिन घरेलू कार्यों में इतने व्यस्त रहते थे कि कुछ भी खाने पीने के लिए मन ही नहीं करता था बाजार कभी जाना नहीं होता था इसलिए बाजारू वस्तुओं का भी ज्ञान नहीं था
 आठवीं कक्षा भी बोर्ड परीक्षा थी जिसका सेंटर बेना में  पडा  था उसमें भी अव्वल स्थान प्राप्त करके वजीफा हासिल किया
 दसवीं तक की पढ़ाई आदर्श कृषि इंटर कॉलेज श्यारोल मैं की तथा फिजिक्स केमिस्ट्री मैथ विद बायो से 11वीं 12वीं की पढ़ाई जमुना खंड इंटर कॉलेज टप्पल से की पढ़ाई लिखाई में हमेशा अव्वल रहे और सभी अध्यापकों का प्यार व आशीर्वाद प्राप्त किया
 परिस्थितियां बहुत प्रतिकूल और विषम रही लेकिन पढ़ाई को नहीं छोड़ा पढ़ाई को नियमित करने के लिए छुट्टियों में रहट चलाएं, पेंठ लगाइ ,बर्फ बेची ,खुदाई की, मिट्टी डाली, ट्रकों पर काम किया, सड़क पर मिट्टी डाली आदि अनेकों ऐसे कार्य किए जिनको लोग शान के खिलाफ समझते हैं लेकिन अपने पास तो कोई चारा नहीं था और कोई ऑप्शन भी नहीं था इसलिए सभी कार्य करने अच्छे भी लगते थे क्योंकि घर की जरूरत थी
 जिंदगी में कभी ट्यूशन नहीं लगाया बिजली नहीं हुआ करती थी चंद्रमा की रोशनी मैं पढ़ाई किया करते थे टूटी हुई झोपड़ी होते थे जब तेज हवा चलती थी तो सभी परिवार के सदस्य पकड़ कर लटक जाया करते थे और जब बरसात होती थी तो झोपड़ी से टपका पढ़ता था जिसकी वजह से लेटना तो बहुत दूर की बात बैठने मात्र की जगह भी नहीं मिलती थी और उस टपके से किताबों को भीजने से बचाते रहते थे 
उस समय हमारा विद्यालय 7-8 किलोमीटर दूर होता था कभी पैदल जाते थे तो कभी कोई गांव का साथी साइकिल के अगले डंडे पर बैठा लेता तो कभी कोई साइकिल के कैरियर पर बैठा लेता गांव सभी लोग बहुत प्यार करते थे और मेरा उदाहरण घर घर में दिया जाता था आज भी गांव के आसपास के क्षेत्र के लोग वर्तमान पीढ़ी को मेरा उदाहरण दे रहे हैं 
उस समय किताब कॉपी रखने के लिए कोई अलमारी नहीं होती थी जंगली और खिड़कियों में ही कॉपी किताबों को रख लिया करते थे मैंने तो अपनी पुरानी सभी किताबों को बर्फ बेचने वाले डिब्बे में रखा और कभी अपनी किताबों को बेचा नहीं 
उस समय कपड़ों पर प्रेस नहीं होती थी बल्कि धुलाई करने के बाद कपड़ों को तह लगा कर सिरहाने रख लेता था और सुबह पहनकर स्कूल चला जाता था
 समय मिलने पर हम कई साथी रामलीला करने का खेल खेलते थे मैं राम बनता था और अन्य साथी रामलीला के अन्य पात्र बनते थे जिस खेल का प्रभाव आज भी दिखाई पड़ रहा है
जो जीवन मैंने जिया है उसकी वर्तमान में तुलना तो नहीं सकती है वह अच्छा था या बुरा मुझे नहीं पता लेकिन अभाओं में जीवन जीना बहुत लाभदायक तथा प्रेरणादायक होता है इंसान को मजबूत व कामयाब बना देता है अधिकतर महापुरुष ऐसी ही भट्टी में तपकर निकलते हैं आजकल सारी सुख सुविधाएं हैं लेकिन इंसानियत शर्मसार है ना तो बड़े छोटे की इज्जत है और ना ही मां-बाप गुरु तथा बहन बेटियों का सम्मान आजकल अपने पराए का बोध भी नहीं है और अपनी जिम्मेदारियों का भी आभास नहीं है यह शिक्षा कहां मिलती है कौन देता है और कैसे मिलती है इसका भी पता नहीं है इसलिए नजरिया आपका है कि पहले के समय में और वर्तमान समय में क्या अंतर आ चुका है

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